Sunday, April 12, 2009
असल क्रांति तो ये है
-विजय कुमार झा
यूपी के राजेंद्र को भला कहां अहसास रहा होगा कि एक दिहाड़ी मजदूर की
बेटी में इतनी हिम्मत होगी। वह तो यही समझ रहा था कि उसका पिता
हीरालाल उसके होने वाले ससुर से 30 हजार रुपये मांग रहा है तो आगे ये रकम
उसी के काम आएगी। पर ये क्या। कंचन ने फेरे से ऐन पहले दहेज मांगे जाने
की बात सुनी तो शादी से ही इन्कार कर दिया। उसने सभी बारातियों को
बैरंग लौट जाने को कहा और खुद थाने चली गई। दूल्हे राजेंद्र व उसके
पिता को हवालात की हवा खिलाने। कंचन के पिता श्रीपाल को थोड़ी देर के
लिए लगा कि उसकी बेटी समाज में कुल-खानदान की नाक कटवा रही है। पर बाद
में उसे अपनी बेटी पर गर्व हुआ। आज कंचन लखनऊ के पास के इलाके बंथाड़ा
में दहेज के मारे अनेक बाप-बेटियों के लिए रोल माडल बनी हुई है।
यह कहानी पटना के पास दीघा के कंचन की है। रिश्ते में कंचन की बुआ लगने
वाली एक महिला ने उसके लिए रिश्ता ढूंढा था। 15 साल के कंचन का होने
वाला दूल्हा 70 साल का रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी था। कंचन को किसी ने
इस बात की भनक तक नहीं लगने दी थी। उसे तो शादी के मंडप में आकर ही यह
पता चला। उसने दूल्हे को देखते ही शादी से इन्कार कर दिया और मंडप से
भाग गई। इस कंचन के किस्से भी कई लड़कियों के लिए प्रेरणास्रोत बने।
पटना के पास ही फुलवारीशरीफ के एक गांव की पूनम की कहानी भी कुछ ऐसी ही
है। पूनम को शादी से कुछ ही क्षण पता चला कि उसका दूल्हा शराबी है।
उसने शादी से इन्कार कर दिया। उसके पिता ने भी उसका साथ दिया।
पिछले कुछ महीनों में बिहार के कई गांवों में ऐसा हुआ कि शराबी
दूल्हे को शादी से ऐन पहले दुल्हन ने लौटा दिया या फिर बेमेल लड़के
से शादी करने से लड़की ने इन्कार कर दिया। कुछ साल पहले तक ऐसा सोचा भी
नहीं जा सकता था। यह धीरे-धीरे आ रही एक क्रांति है। ऐसी क्रांति जो
महिलाओं को अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिए तैयार कर रही है। इसका सबसे
सुखद पहलू यह है कि इस क्रांति की नायिकाएं दिल्ली-मुंबई जैसे बड़े
शहरों की संभ्रांत महिलाएं नहीं हैं, बल्कि ये नायिकाएं पटना, लखनऊ
जैसे छोटे शहरों के छोटे गांव-कस्बों में उभर रही हैं। उन गांवों में
जहां भारत बसता है। जहां से तरक्की दूर ही भागती है। और जहां के लोगों
के पास जिंदगी काटने तक का पूरा इंतजाम नहीं है। यानी यह क्रांति पूरे
भारत की और पूरे भारत के लिए है।
बिहार की बात करें तो महिलाएं हर मामले में पुरुषों से पीछे हैं।
प्रति हजार पुरुषों पर उनकी संख्या 921 है। उनकी आबादी करीब चार करोड़
है, जबकि पुरुषों की संख्या लगभग साढ़े चार करोड़ है। महिलाओं की
साक्षरता दर तो पुरुषों की तुलना में लगभग आधी है। इन बातों में कम होने
के बावजूद वे पुरुषों से पीछे नहीं रहना चाहती हैं। अब उनके लिए भी
जमाना बदल रहा है। मानसिक रूप से बीमार लड़के से शादी से इन्कार करने
वाली पुष्पा कहती है- मैंने अपने फैसले से न केवल खुद को, बल्कि अपने
परिवार को भी मुसीबतों से भी बचा लिया। उसे खुशी है कि उसके फैसले में
उसे परिवार और समाज का पूरा साथ मिला। अब पुष्पा ने शादी से पहले
लड़के को खुद परखने का फैसला किया है। इससे पहले यह ‘हक’ लड़के वालों को
होता था। वे शादी से पहले लड़की को देखते-जांचते और फिर मामूली-सी किसी
बात पर शादी से मना भी कर देते। पर अब यह अधिकार लड़कियां भी आजमाने
लगी हैं।
यह सही मायने में महिलाओं का सशक्तीकरण है। और यह संभव हुआ है बदलाव की
बयार गांव-गांव तक पहुंचने से। पुरानी शास्त्रीय मान्यताओं के मुताबिक
औरत जीवन भर बंधन में, किसी के अंदर रहती है। शास्त्रों में कहा गया है
कि बचपन में लड़की पिता के अधीन रहती है, जवान होने पर पति के आधीन हो
जाती है और प्रौढ़ावस्था में उसे बेटे के अंदर रहना पड़ता है। यह
मान्यता वजूद खोने लगी है। वर्षों पहले शुरू किए गए सामाजिक सुधार का
असर दिखने लगा है। सरकार-समाज के सहयोग और तकनीक के प्रचार-प्रसार के
चलते खुले विचारों की हवा अब सुदूर गांवों तक भी पहुंच रही है। नतीजा
महिलाएं बंधन तोड़ने के लिए छटपटाने लगी हैं। उन्हें कानूनी संरक्षण
देकर सरकार ने उनका साथ दिया और समाज को भी उनका साथ देने के लिए तैयार
होना पड़ रहा है।
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