Friday, December 18, 2009

...तो क्‍या इसी से हो जाएगा विकास

-विजय कुमार झा

नौ दिसंबर, 2009 की आधी रात को आलाकमान खुश हुआ और टीआरएस प्रमुख के. चंद्रशेखर राव की 11 दिन की तपस्‍या (अनशन) सफल हुई। केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने कहा- तथास्‍तु! इसी के साथ 29वें राज्‍य के रूप में तेलंगाना का वजूद बनता दिखने लगा। मेरा पत्रकार वाला दिमाग कुलबुलाने लगा। तुरंत सवाल कौंधा कि तेलंगाना बन गया तो कितना कुछ बदल जाएगा।

सबसे पहले तो यही दिमाग में आया कि जीके की सभी किताबें बदल जाएंगी। उनमें देश के कुल राज्‍यों की संख्‍या 28 की जगह 29 हो जाएगी। एक अदद राजधानी बनेगी। एक विधानसभा होगी, जहां 119 विधायकों के लिए राजनीति करने का पूरा इंतजाम होगा। कुछ नेताओं को मुख्‍यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का सपना साकार करने का मौका मिलेगा। अफसरों के लिए भी तरक्‍की के नए द्वार खुलेंगे। एक राज्‍य बन जाने से और कुछ बदले या नहीं, इतने बदलाव तो पक्‍के हैं।

इसके अलावा अलग राज्‍य बन जाने से तेलंगाना क्षेत्र की 3.1 करोड़ जनता का भी तो कुछ भला होगा? उनके संसाधनों पर उनका अपना हक होगा और उनकी तरक्‍की भी तो होगी? पर क्‍या वाकई राज्‍य बन भर जाने से जनता का भला हो जाता है? अगर ऐसा होता तो झारखंड या छत्‍तीसगढ़ के लोगों की बदहाली खत्‍म नहीं हो गई होती? नौ साल में नेताओं की अमीरी जितनी बढ़ी है, जनता उतनी ही गरीब हुई है वहां।

कुछ लोग कहते हैं कि छोटे राज्‍य विकास के लिए जरूरी हैं। अगर ऐसा है तो हर गांव-शहर को ही राज्‍य के रूप में क्‍यों न बदल दिया जाए? विकास का यही मॉडल है फिर तो संयुक्‍त परिवार में रहने वाले किसी व्‍यक्ति के विकास की कल्‍पना ही मुश्किल होगी। मेरी राय में जो लोग विकास का हवाला देकर राज्‍यों के बंटवारे को जायज ठहराते हैं, वे समाज की उस औरत की तरह हैं जो लोगों को परिवार से अलग होने के लिए भड़काती रहती है। सच तो यह है कि अगर संयुक्‍त परिवार में किसी का विकास नहीं हो रहा है तो उसके लिए परिवार का नेतृत्‍व जिम्‍मेदार है। परिवार के मुखिया का दायित्‍व है कि वह कुशल प्रबंधन का परिचय देते हुए हर सदस्‍य को उसकी क्षमता और जरूरत के हिसाब से आगे बढ़ने के लिए संसाधन और माहौल मुहैया कराए। आखिर हर जगह छोटे राज्‍यों का आंदोलन संसाधनों के गलत बंटवारे की बुनियादी झगड़े से ही तो शुरू हुआ है। लिहाजा विकास के लिए छोटे राज्‍यों से ज्‍यादा जरूरी है सक्षम और समर्पित नेतृत्‍व। हां यह बात जरूर है कि परिवार छोटा हो तो उसे बांधना अपेक्षाकृत आसान होता है। पर इसका यह मतलब नहीं कि परिवार को बांट दिया जाए। इसका रास्‍ता सत्‍ता और अधिकारों के विकेंद्रीकरण से निकल सकता है। नेता की नीयत में खोंट नहीं हो और जनता भी सजग-ईमानदार हो तो पूरा भारत भी एक राज्‍य के रूप में चीन से आगे निकल सकता है।