- विजय कुमार झा
यादें हसीन हों तो उनमें जीना अच्छा लगता है, पर उस पेशे में हूं जहां कल की बात आज बासी हो जाती है। सो आज में ही जीने वाला पत्रकार विजय बन कर रह गया हूं। अजय जी का शुक्रिया कि उन्होंने अतीत में झांकने को प्रेरित किया और मैं कुछ देर के लिए बीते जमाने में लौट गया। मुश्किल तो हुई, पर मजा भी खूब आया। जो समेट पाया, वह लेकर एक बार फिर आज में लौट आया हूं।
जब से महानगर (दिल्ली) में मशीनी जिंदगी जीने के लिए मजबूर हुआ और टीवी, कंप्यूटर, इंटरनेट आदि की सुविधा सुलभ हो गई, बड़े पर्दे पर सिनेमा देखने के कम ही मौके मिलते हैं। महीनों बाद, कभी-कभार। वैसे, सच कहें तो अब देखने लायक फिल्में भी तो कभी-कभार ही बनती हैं। शायद महीनों नहीं, बल्कि सालों बाद। बहरहाल, जब कभी भी मल्टीप्लेक्स की लिफ्ट चढ़ने का मौका मिलता है, गुजरा जमाना याद आता है। स्कूल-कालेज वाले दिन।
अचानक फिल्म देखने का प्रोगाम बनता तो चौकड़ी में पहला सवाल यही उठता था- टिकट मिल जाएगा? मैं जिस शहर (भागलपुर) में पला-बढ़ा, वहां अभी भी फोन या इंटरनेट से बुकिंग की सुविधा नहीं है। बॉक्स ऑफिस पर चमकी हुई फिल्म के शो के टिकट लेना फल पाने (फिल्म देखने) से पहले तपस्या करने के बराबर था। यह बात अलग थी कि अक्सर यह तपस्या मेरा कोई दोस्त किया करता था और पूरे तीन घंटे ‘फल’ का आनंद हम सब मिल कर लेते थे।
हमारे लिए उन दिनों फिल्म देखना एक गोपनीय अभियान हुआ करता था। सिनेमा हॉल जाने और वहां से निकलने तक इस बात की पूरी कोशिश की जाती थी कि कहीं कोई जान-पहचान वाला नहीं दिख जाए, जो घर तक खबर पहुंचा दे। दरअसल, पिताजी फिल्मों के प्रति दीवानगी को सीधे बच्चे की बर्बादी से जोड़ कर देखते थे। यह फिल्मों के प्रति समाज के एक तबके में प्रचलित हेय दृष्टिकोण का नतीजा था। यह तबका फिल्म कलाकारों को नाचने-गाने वाले और फिल्म को समाज को गलत दिशा दिखाने वाले माध्यम के रूप में लेता था। ऐसी धारणा फिल्मों और फिल्मी दुनिया को देखे-जाने-समझे बिना ही बनी हुई थी कि फिल्में भावी पीढ़ी को बिगाड़ने का सबसे अच्छा जरिया हैं। लगभग सभी दोस्तों की यही समस्या थी, सो सामूहिक प्रयास से हम अपने ‘अभियान’ को गोपनीय रखने में अक्सर कामयाब हो जाते थे। बहरहाल, आज जब इसका सकारात्मक पहलू ढूंढता हूं तो यही लगता है कि चोरी चुपके फिल्म देखने का हमारा अभियान कहीं न कहीं हम दोस्तों की दोस्ती के बंधन को मजबूती ही देता था। स्कूल में प्रेमरंजन से मेरी और रूपेश की दोस्ती ही फिल्म देखने के क्रम में हुई थी। उन लोगों ने क्लास बंक कर फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाया था और उसमें हम दोनों को भी शामिल कर लिया था। वहीं से हमारी दोस्ती की शुरुआत हुई थी।
उन दिनों सिनेमा को लेकर समाज का नजरिया, समाज को लेकर सिनेमा जगत की सोच और बनने वाली फिल्में ही अलग नहीं थीं, बल्कि फिल्में देखने का अंदाज भी अलग था। तीन घंटे की फिल्म देखने का मतलब पूरे तीन घंटे मनोरंजन, मनोरंजन और केवल मनोरंजन। हर कोई अपने-अपने अंदाज में ‘पैसा वसूल’ मनोरंजन करता था। कोई सीटी बजा कर, कोई नायकों के कारनामे देखकर, कोई हीरो-हीरोइन का रोमांस देख कर तो कोई कहानी और किरदारों में डूब कर। दर्शक पर्दे पर नायकों के कारनामे से उत्साहित होते और खलनायकों पर गुस्सा भी करते थे। फिल्मों को वास्तविकता के काफी करीब रख कर देखा जाता था। फिल्में बनाने वाले शायद उसे हकीकत के इतना करीब लाने की कोशिश नहीं करते थे, पर दर्शक उसे वास्तविकता से जोड़ लेते थे। आज फिल्मकार अपनी तरफ से कोशिश कर भी दर्शकों को वास्तविकता के करीब ले जाने में सफल नहीं हो पाते। शायद इसलिए कि फिल्में तकनीकी रूप से वास्तविकता के करीब आई हैं, पर कहानी और किरदारों के मोर्चे पर यह करीबी नहीं आई है। यही वजह है कि आज फिल्म बनाने वालों को प्रचार पर भारी-भरकम रकम खर्च करनी पड़ रही है और प्रचार के नए-नए तरीके भी खोजने पड़ रहे हैं। इस दौरान फिल्मों का व्यावसायीकरण (कॉरपोरेटाइजेशन ऑफ फिल्म्स) जितना बढ़ा है, उतना कुछ नहीं। इसलिए रील लाइफ की सभी रियल चीजें बनावटी लगती हैं।
‘हिन्दी टाकीज’ की बात गानों की चर्चा के बिना अधूरी रहेगी। यह इसलिए भी क्योंकि फिल्मों के प्रति मेरी रुचि विकसित होने में गानों की अहम भूमिका रही। गाने सुनने के लिए रेडियो एक मात्र सर्वाधिक लोकप्रिय और सस्ता साधन था। घर में ‘डेक’ (आडियो प्लेयर) और टीवी आ जाने के बाद भी मैं रेडियो पर ही गाने सुनने का मजा लेता था। वजह यह थी कि हर दौर और मूड के गाने आसानी से सुनने को मिल जाते थे। सुरैया से लेकर यशुदास तक और पंकज उधास से कुमार शानू तक। सुबह बीबीसी सुनने के बाद पिताजी रामचरित मानस का पाठ सुना करते थे। उसके बाद श्रीलंका ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन के विदेश विभाग (सीलोन) से फिल्मी गाने सुनने का मेरा दौर शुरू होता था। आठ से नौ तक हर मूड के गाने सुनने के बाद नौ बजे से आधे घंटे तक स्थानीय भागलपुर रेडियो स्टेशन से ‘गीत र्निझर’ बहा करता था। पौने दस से सवा दस बजे तक पटना स्टेशन से गाने आते थे। सुबह के इस सत्र का जहां तक संभव हो सके, मैं पूरा लाभ उठाता था। फिर रात को रेडियो नेपाल। इनसे इतर, बेवक्त गाने सुनना हो तो विविध भारती था ही। अब ये सोचने में पसीना मत बहाइए कि मैं पढ़ाई कब करता था। वह मैं कर लिया करता था। बहरहाल, गाने सुन कर मैं बालीवुड की विविधता के बारे में सोचने लगता था और मेरा दिमाग चकरा जाता था। असल जिंदगी की किसी भी स्थिति (सिचुएशन) की कल्पना कीजिए और उससे संबंधित गाना सोचिए, मिल जाएगा। हालांकि अगर सिर्फ बीते दस-बीस साल के गाने तलाशे जाएं तो संभवत: ऐसा नहीं हो, पर पुराने जमाने के गाने विविधता और वास्तविकता की इस कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरते हैं। बालीवुड के प्रति मेरी सकारात्मक सोच विकसित होने में इस सच्चाई का काफी योगदान रहा। फिर नई आने वाली फिल्मों के गाने सुन कर ही हम प्रथमदृष्टया यह तय करते थे कि फिल्म देखने चलना है या नहीं। अगर चलना है तो मंडली में विचार होता था और फिर कार्यक्रम बन जाता था। उन दिनों गाने नई फिल्मों के प्रचार का भी बड़ा हथियार होते थे। प्रचार मुख्य रूप से गली-मोहल्लों में लाउडस्पीकरों से अनाउंस करवा कर और पोस्टर चिपका कर किए जाते थे। लाउडस्पीकरों से फिल्म के गाने सुनाए जाते थे और बीच-बीच में प्रचार करने वाला शख्स फिल्म के कलाकारों के बारे में बताता था। पता नहीं, मेरे शहर में अब भी फिल्मों का प्रचार ऐसे ही होता है या इसकी जरूरत ही नहीं रह गई है। अब तो साल या दो साल में एक बार जाना होता है और वह भी कुछ दिनों के लिए। काश! बीते जमाने को यादों से इतर, हकीकत में जीना मुमकिन हो पाता।
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