Sunday, September 23, 2007

अंग्रेज़ी के साथ अंग्रेजीदां से भी निपटना होगा

विजय कुमार झा

राजेश जी,
आपने बहुत सही लिखा है. एक बहुत सही कहावत है, या तो धाराओं को बदल डालो और अगर ऐसा करने की कूवत नहीं है, तो फ़िर उनके साथ बहना सीखो. आज के दौर में अंग्रेज़ी का महत्व घटाना या फ़िर उसे खत्म करना सम्भव नहीं रह गया है. ऐसे में विकास की दौड़ में शामिल होने के लिए हमें अंग्रेज़ी सीखनी ही होगी. एक पीढ़ी तो हम वैसे ही पीछे खिसक चुके हैं, लेकिन अगली पीढ़ी को इसके लिए अभी से तैयार करना होगा. चुनौती केवल अंग्रेज़ी का हौव्वा ख़त्म करने और उसे सीखने की नहीं है, बल्कि आज के अंग्रेजीदां लोगों द्वारा पेश बाधाओं से भी पार पाना होगा. वे कभी नहीं चाहेंगे कि विकास कि मलाई में उनका कोई साझेदार तैयार हो. अभी तक वे अपनी इस मंशा में कामयाब भी रहे हैं. तभी तो छोटे शहरों के बल पर महानगरों की चकाचौंध बरकरार रहने के बावजूद छोटे शहर विकास की दौड़ में पीछे हैं. दिल्ली- मुम्बई के अंग्रेजीदां लोग कभी नहीं चाहेंगे कि नवादा, भागलपुर और आरा वाले भी अंग्रजी सीख सकें. उनकी इस मानसिकता को भी मिटने की जरूरत है. इसे मिटाए बिना, भारत और इंडिया नाम के जिन दो अलग-अलग समाजों की बात आपने की है, उनके बीच की खाई को पाटना सम्भव नही होगा. और इस खाई के चौड़ी होने के साथ बढ़ रही महानगरीय विकास कि चमक आगे चलकर हमसे क्या कीमत मांगेगी, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है.