
कैसी है आज की पत्रकारिता? यह सवाल अपने आप में जटिल है, सो मैंने इसके बारे में सोचना ही छोड़ दिया था। वैसे भी, इस सवाल पर बड़े-बड़े दिग्गज विचार कर रहे हैं। ऐसे में मुझे अपना सोच त्याग देना ही मुनासिब लगा।
जब मैं पत्रकारिता के पेशे में नहीं आया था, तब इसके बारे में सोचा करता था। बड़ा अच्छा लगता था। तब नहीं पता था कि पत्रकारिता सर्कुलेशन और टीआरपी का खेल है। तब तो यही पता था कि पत्रकार बन कर इंसान रोजी-रोटी तो कमा ही सकता है, साथ ही समाज के लिए कुछ करके कुछ हद तक उसका कर्ज़ भी चुका सकता है। अब पता चला कि मालिकों के लिए यह बिजनेस है और हम जैसे मुलाजिमों के लिए विशु्द्ध नौकरी।
बाज़ार के फैलाव के चलते आज मीडिया का संसार भी खूब फला-फूला है। दर्जनों चैनल चौबीसो घंटे 'खबर' परोस रहे हैं। फिर भी, बेचारा दर्शक हैरान है कि उसे काम की ख़बरें तो मिल ही नहीं रही हैं। तुर्रा यह कि उसे ज़बरदस्ती जो परोसा जा रहा है, उसे उसकी पसंद बता कर थोपा जा रहा है। वह खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है, लेकिन वह अपनी बात लेकर कहीं नहीं जा सकता, क्योंकि उसके लिए कोई 'उपभोक्ता आयोग' भी तो नहीं है। ऐसे में बेचारे दर्शकों के पास या तो चैनल को कोसने या फिर उसे झेलने (या कहें कि मजबूरी में एंजॉय करने) का ही विकल्प रह जाता है।
इन तमाम सौदेबाज़ी के बीच मीडिया में बहस भी चल रही है कि क्या यही है असली पत्रकारिता? इस सवाल का भी जवाब ढूंढा जा रहा है कि क्या अच्छी पत्रकारिता बिजनेस के लिहाज़ से बुरी हो गयी? अब इन चर्चाओं को दर्शकों के लिए उम्मीद की किरण कहें या उनके जले पर नमक लगाना, इसका फैसला तो खुद दर्शकों-पाठकों पर छोड़ना ही बेहतर होगा।
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