-विजय कुमार झा
अच्छा ही हुआ ‘माया’ की माला पर शुरू हुआ शोर जल्दी ही थम गया। एक बार फिर साबित हुआ कि ‘माया’ की महिमा अपरंपार है और माया में बड़ी ताकत है। इसके आगे कोई ज्याकदा समय तक टिक नहीं सकता। राजनीतिक विरोधी भी नहीं। इसकी ठोस वजह भी है। विरोधी होंगे माया के, ‘माया’ का विरोधी भला कौन होता है। पटना में तो यह साफ दिख भी गया। माया की देखादेखी जद-यू के एक ‘माननीय’ ने ‘माया’ की माला क्या पहनी, सब ने माला के तार-तार कर दिए। जबकि एजाज भाई की माला तो माया की माला की तुलना में पासंग भी नहीं थी। फिर भी ऐसा हुआ। हो भी क्यों न, मुफ्त में जितनी माया हाथ लग जाए, वही क्या कम है?
हमें तो बसपा वालों का कायल होना चाहिए। उनके त्याीग और धीरज धरने की क्षमता का मैं तो मुरीद हो गया। 60-65 किलो की माला और वह भी किसी ऐरी-गैरी चीज की नहीं, बल्किन चित्ती को शांत करने वाले करारे नोटों की। और नोट भी सौ-पचास के नहीं, केवल हजार-हजार के। सोचिए, किसी गरीब के हाथ लग जाए तो उसकी खुशी का ठिकाना रहेगा क्यास? नहीं न? इसके बावजूद बसपाई अनुशासित रहे। माला की जितनी झलक मिल गई, उसी से संतुष्टह हो कर घर लौट गए। राजनीतिक समुदाय में ऐसा अनुशासन दुर्लभ है। संसद का नजारा तो हम रोज देखते ही हैं। यह तो रही अनुशासन की बात। बात विरोध की हो रही थी। विरोधियों में दम नहीं रहा तो इसकी एक मात्र वजह यही नहीं थी कि ‘माया’ के दीवाने सभी हैं। बात यह भी रही कि विरोध की कोई ठोस वजह नहीं थी। विरोधी उन्हेंय दलित विरोधी बता रहे थे। पर वे समझ नहीं पाए कि मायावती ने 21 लाख (जैसा कि पार्टी और सरकार में उनके मातहत नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने बताया) या पांच करोड़ (आयकर विभाग के अनुमान के मुताबिक) रुपये की माला पहन कर कोई दलित विरोधी काम नहीं किया। उल्टार उन पर एहसान किया। इतनी ‘माया’ संभालने की उनमें हैसियत नहीं देख कर उसे संभालने की एकीकृत व्यवस्था के तहत अपने गले में टांग लिया। कानून-व्यवस्था की खराब हालत के मद्देनजर भी नोटों की सुरक्षा के लिहाज से यह एक सराहनीय कदम था।
कुछ विरोधी तर्क दे रहे थे कि मायावती को अपने गरीब मतदाताओं के खाने-पीने की चिंता नहीं है, उन पर बस ‘माया’ की हनक दिखाने की सनक सवार है। यह तर्क देने वालों ने अगर अपनी आंखें और दिमाग की खिड़कियां खुली रखी होतीं तो उन्हेंआ महसूस होता कि इस तर्क में मुंह की फूंक झेलने का दम भी नहीं है। जिस रैली में किए गए कारनामे के चलते मायावती का नाम ‘मालावती’ पड़ गया, वहां बसपा के मतदाताओं के लिए खाने-पीने का भरपूर इंतजाम था। फिर कोई कैसे कह सकता है कि मायावती को उनके गरीब मतदाताओं की चिंता ही नहीं है। आखिर हजार रुपये के नोट के बदले कितना खाना मिलेगा और वह भी इस महंगाई में। वैसे भी, महंगाई बढ़ाने में तो मायावती का कोई रोल नहीं है। वह पहले ही बता चुकी हैं कि यह केंद्र सरकार की करतूत है। इसके बावजूद केंद्र वाले ही यह आरोप लगा रहे थे कि मायावती को गरीबों की चिंता नहीं है। और तो और विरोधियों ने दलील रखी कि बरेली जल रहा है और मायावती नोटों का हार पहन कर इतरा रही हैं। अब उन्हेंर कौन समझाए कि आग (भले ही पेट की नहीं हो) बुझाने के लिए भी नोटों की जरूरत पड़ती है।
राजनीति के खिलाड़ी होकर इतना भी नहीं समझ पाए। आश्चुर्य है। शायद सब माया का ही असर है।
Saturday, March 20, 2010
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