Tuesday, September 25, 2007

समस्या अंग्रेज़ी की नही, अंग्रेज़ी मानसिकता की

नवभारत टाईमसhttp://www.navbharattimes.com के पत्रकार राजेश कुमार मिश्रा को अंग्रेजियत की मानसिकता से चिढ है और इस कड़ी में उन्हें देश की परम्परा पर भी खतरा नजर आ रहा है।
vijay tum sahi kah rahe ho।Samasya angreji ki nahi hai, angreji mansikta ki hai। char line angreji bolne wale kai log apne aapko kisi anokhi dunia ka niwasi samajhne lagte hai.hindi bolne walo se ghrina karne lagte hai,is mansikta se mujhe chid hai. ye sahi hai ki vikas ki is daud(andhi hi sahi)me hum bina angreji ke aage nahi nikal sakte hai.lekin sabse mahtvapurna sawal ye hai ki is daud me hum kanhi apni sanskri ki samridha parampara ko hi nahi kho de.

Sunday, September 23, 2007

अंग्रेज़ी के साथ अंग्रेजीदां से भी निपटना होगा

विजय कुमार झा

राजेश जी,
आपने बहुत सही लिखा है. एक बहुत सही कहावत है, या तो धाराओं को बदल डालो और अगर ऐसा करने की कूवत नहीं है, तो फ़िर उनके साथ बहना सीखो. आज के दौर में अंग्रेज़ी का महत्व घटाना या फ़िर उसे खत्म करना सम्भव नहीं रह गया है. ऐसे में विकास की दौड़ में शामिल होने के लिए हमें अंग्रेज़ी सीखनी ही होगी. एक पीढ़ी तो हम वैसे ही पीछे खिसक चुके हैं, लेकिन अगली पीढ़ी को इसके लिए अभी से तैयार करना होगा. चुनौती केवल अंग्रेज़ी का हौव्वा ख़त्म करने और उसे सीखने की नहीं है, बल्कि आज के अंग्रेजीदां लोगों द्वारा पेश बाधाओं से भी पार पाना होगा. वे कभी नहीं चाहेंगे कि विकास कि मलाई में उनका कोई साझेदार तैयार हो. अभी तक वे अपनी इस मंशा में कामयाब भी रहे हैं. तभी तो छोटे शहरों के बल पर महानगरों की चकाचौंध बरकरार रहने के बावजूद छोटे शहर विकास की दौड़ में पीछे हैं. दिल्ली- मुम्बई के अंग्रेजीदां लोग कभी नहीं चाहेंगे कि नवादा, भागलपुर और आरा वाले भी अंग्रजी सीख सकें. उनकी इस मानसिकता को भी मिटने की जरूरत है. इसे मिटाए बिना, भारत और इंडिया नाम के जिन दो अलग-अलग समाजों की बात आपने की है, उनके बीच की खाई को पाटना सम्भव नही होगा. और इस खाई के चौड़ी होने के साथ बढ़ रही महानगरीय विकास कि चमक आगे चलकर हमसे क्या कीमत मांगेगी, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है.

सामाजिक न्याय के लिए ज़रूरी है अँगरेज़ी

बीबीसी में कार्यरत राजेश प्रियदर्शी जी ने बहस छेड़ने के लिए यह लेख लिखा है. उन्हौने बहुत सही और ज्वलंत मुद्दा उठाया है. उनका यह लेख मूल रूप से बीबीसी की वेबसाइट (http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2007/09/070922_edit_english.shtml) पर है। हमने आपके लिए इसे यहाँ भी पेश किया है. आप पढिये और अपनी राए दीजिये।






राजेश प्रियदर्शी
बीबीसी संवाददाता, लंदन

भारत में जो तेज़ रफ़्तार तरक्क़ी हो रही है उसका ज्यादातर श्रेय देश के शिक्षित मध्यवर्ग को जाता है, और जितनी समस्याएँ हैं उनका विश्लेषण करने पर हम अक्सर इसी नतीजे पर पहुँचते हैं कि जब तक लोग शिक्षित नहीं होंगे तब तक हालात नहीं बदलेंगे.
सारा विकास दिल्ली, मुंबई, बंगलौर जैसे शहरों में हो रहा है जिसकी कमान थाम रखी है अँग्रेज़ीदाँ इंडिया ने, जबकि गोहाना, भागलपुर, नवादा, मुज़फ़्फ़रनगर में जो कुछ हो रहा है वह भारत की अशिक्षित जनता कर रही है जिसे शिक्षित बनाने की बहुत ज़रूरत है.
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इस तरह के निष्कर्ष तो सब बड़ी आसानी से निकाल लेते हैं. क्या सब कुछ इतना सीधा-सरल है? शिक्षा का कुचक्र क्या सरकार को, पढ़े-लिखे समझदार लोगों को नहीं दिख रहा है?
दिल्ली में बीए पास करने वाला युवक कॉल सेंटर की नौकरी पा सकता है, बलिया, गोरखपुर, जौनपुर या सिवान जैसी जगह से बीए पास करने वाले युवक को सिक्यूरिटी गार्ड क्यों बनना पड़ता है, इस सवाल का जवाब हम कितनी मासूमियत से टाल जाते हैं.
जवाब मुख़्तसर है--अँगरेज़ी.
अँगरेज़ी की जो पूँजी दिल्ली वाले युवक के पास है वह आरा-गोरखपुर वाले के पास नहीं है. इसका भी एक मासूम सा जवाब है कि 'तो अँगरेज़ी क्यों नहीं सीखते'?
गाँव-क़स्बों के बिना छत वाली स्कूलों की तस्वीरें भी अब छपनी बंद हो गईं हैं कि असली तस्वीर आँख के सामने रहे.
क्या किसी ने कभी पूछा है कि अँगरेज़ी मीडियम स्कूलों में नाम लिखाने की आर्थिक-सामाजिक शर्तें देश की कितनी आबादी पूरी कर सकती है.
अगर नहीं कर सकती तो क्या सबको चमकदार मॉल्स के बाहर सिक्यूरिटी गार्ड बन जाना चाहिए और जो बच जाएँ उन्हें उग्र भीड़ में तब्दील हो जाने से गुरेज़ करना चाहिए.
भारत और इंडिया नाम के जो दो अलग-अलग समाज एक ही देश में बन गए हैं अँगरेज़ी उसकी जड़ में है. यह दरार पहले भी थी लेकिन उदारीकरण के बाद जो रोज़गार के अवसर पैदा हुए हैं उन्हें लगभग पूरी तरह हड़प करके अँगरेज़ी ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है.
बदलाव का समय
मुझे लगता है कि प्राथमिक स्तर पर पूरे देश में अँगरेज़ी शिक्षा को अनिवार्य कर देने का समय आ गया है, इसके बिना देश की बहुसंख्यक वंचित आबादी के साथ कोई सामाजिक-आर्थिक न्याय नहीं हो सकता.
अगर हम व्यवस्था को नहीं बदल सकते तो कम से कम ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करने का उपाय तो करें. जब साफ दिख रहा है कि अँगरेज़ी जानने वाले कुछ लाख लोगों की बदौलत महानगरों में इतनी समृद्धि आ रही है तो क़स्बों-गाँवों को अँगरेज़ी से दूर रखने का क्या मतलब है?
हिंदीभाषी समाज के लिए भाषा एक भावनात्मक मुद्दा रहा है. हिंदी को स्थापित करने के लिए अँग्रेज़ी को वर्चस्व को समाप्त करना होगा.
यह मानते हुए अलग-अलग राज्यों में हर स्तर पर आंदोलन-अभियान चलते रहे लेकिन परिणाम सबके सामने है. सत्ता की भाषा बदल देने की लड़ाई इतनी आसान नहीं होती.
बिहार,उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की सरकारें इस मामले में हमेशा भ्रमित रही हैं, कभी पहली कक्षा से अँगरेज़ी पढ़ाने की बात होती है तो कभी सातवीं से. हिंदी को लेकर दक्षिण भारत में जो राजनीति है उससे भी सब अच्छी तरह वाकिफ़ हैं.
आपको याद ही होगा, ग्लोबलाइज़ेशन, उदारीकरण, बाज़ारीकरण का कितना विरोध एक दौर में हुआ था. धीरे-धीरे सही-ग़लत की बहस ख़त्म हो गई और पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार तक ने मान लिया कि जिधर दुनिया जा रही है, उधर ही जाना होगा.
हिंदी के लिए भावुक होकर आप बहुत कह सकते हैं जो अब तक कहते रहे हैं लेकिन सोचिए यह लड़ाई भावना की नहीं, अवसरों की है.